poetry

सपने और वक़्त

घटते हुए लम्हों को गिनती हूँइन बढ़ती हुई आँखो को गिनती हूँबिना सोये बिना जगे सबकी बाते सुनती हूँझपकी लेने जाऊ भी तोजोर का चांटा पड़ता है वक़्त काआज भी उस गुमनाम मंजिल की खोज करने जाना हैआज भी बिना पीछे मुड़े बस आगे का देखना हैरोज रहती हु खुले आसमान के निचे फिर भी नया कुछ दिखता नहीं हैचलती हु रोज लेकिन एक भी लम्हा बीतता नहीं हैंइन भागते हुए बदलो के भीड़ मेंमैं…

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