जीती हु उस परछाई में
कभी पेड़ों के तो कभी दरवाजो के पीछे
आंखे खोलना भूल जाती हु
रूठती हु खुदसे, डूबती हु खुदमे
बहार निकलना भूल जाती हु
आते है लमहे हाथों में आज भी
बस मुट्ठी बंद करना भूल जाती हु
दौड़ती हु जब भी उनके पीछे
तो रुकना भूल जाती हु
बदलती हु चेहरे हजार, फिर भी
आईना देखना भूल जाती हूँ
इंतजार करती हु किसी का
कभी इस जगह तो कभी उस जगह
वापस घर लौटना भूल जाती हु
देखती हु जाते हुए दूर उनको
फिर भी पीछे से आवाज लगाना भूल जाती हु
जीती हु उस परछाई में
बस आंखे खोलना भूल जाती हूँ |