poetry

मैं तुम्हारी परछाई

मैं तुम्हारी परछाई हु तुम मेरे समंदर हो तुम जहां तक अपनी बाजुओं को फैलाते हो मैं भी अपनी बाहें वहां तक फैलाती हूँ वो अजनबी बैठे रेत पर कहते है शश———- सुनो समंदर की आवाज कितनी सुनहरी है लेकिन उसे नहीं पता ये हम दोनों है जो बाते करते है जब भी हमारे बिच तकरार होती है तब तब ज्वर- भाटे आते है वो चाँद इस बात का अभिलेख रखता है वो दो लोग…

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