poetry

समय

मैं ठहरी हुई, ये समय भागता हुआ

कैसे इसे पकडू मैं

आंखे धुंधली हैं, पैरों में कांटे चुभे हैं

ये दर्द कैसे सहुँ मैं

दुनिया बोलती है जी लो तुम इस समय में

लेकिन कल की फ़िक्र कैसे छोड़ू मैं

वो धुंधली सी बाते जाने अनजाने जेहन में घूमती रहती हैं रोज

तो रातो को कैसे सोउ मैं

कोई नसीहत दे जाता हैं इस समय के इस्तेमाल का

लेकिन ये बताता नहीं

की इसपे अपनी मर्जी कैसे चलाऊ मैं

इस छोटे से कमरे में बैठे कभी गिनती हु मिनट्स तो कभी घंटे

इसको अपना कैसे बनाऊ मैं

ये दिल रोज शोर करता है इस चुप पड़े शरीर में

इस दिल को कैसे समझाऊ मैं

रोज भागता है दिमाग इधर से उधर

इसके साथ – साथ कैसे चालू मैं

सब कुछ अधूरा पड़ा है इस जिंदगी में

सपनो के डेरे कैसे लगाउ मैं

रोज कोई न कोई पूछ लेता है, तुम्हारा समय कैसा हैं

उन नजरो से कैसे बचूं मैं

मैं ठहरी हुई, ये समय भागता हुआ

कैसे इसे पकडू मैं ———————————

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