कच्चे धागे से बंधी आँखों से
जलती है कभी दिए की लौ में
कभी घुल जाति है काली रौशनी में
कुछ लोग घूमते दीखते है उस बड़े से खेत में
जब मैं खो जाती हु उस भिड़ में
तो उड़ जाती है नींद मेरी उस बहते हवा के झोके में
काले, सफ़ेद दो पहलुओं में बंधी पलकों से
टूट कर बिखर जाती है इस छोटे से घर में
सिमट जाती है खुद में ही
कभी वो लोग बैठ कर दोहराते है बाते वही
जब मैं भी जा कर बैठ जाती हु उस समूह में
तो खो जाती है नींद मेरी उन बातो के झुंड में|