गम और ख़ुशी, इस जिंदगी ने सबके प्लेट में बराबर ही परोसे है
हार, जित की माला लिए बैठी हु इस खाने की मेज पे तो
पिने को बस आंसू ही मिले है
किससे शिकायत करू मैं, इस जिंदगी की कड़वाहट की
यहाँ मेरी ही तरह सबकी प्लेट कड़वे करेले से भरे है
कितने भी कड़वे क्यों न हो खाना सबको ही है
कभी कभी कुछ रस्गुल्ले भी दे देती है प्याले में
तो बचा के रख लिया उनको कल के लिए मैंने
लेकिन वो आज सरे ही खराब हो चुके है
अब रोउ या हसु अपनी किस्मत पे समझ नहीं आता
आज ये करेले से भी कड़वे लग रहे है
अब धीरे- धीरे समझ रही हु इस जिंदगी को मैं भी
इस लिए अब वो खाने की मेज़ अकसर शांत होती है
वो प्लाटों का टूटना भी बंद हो चूका है
और उन रशगुलों की मिठास भी बढ़ चुकी है।