poetry

सपने और वक़्त

घटते हुए लम्हों को गिनती हूँ
इन बढ़ती हुई आँखो को गिनती हूँ
बिना सोये बिना जगे सबकी बाते सुनती हूँ
झपकी लेने जाऊ भी तो
जोर का चांटा पड़ता है वक़्त का
आज भी उस गुमनाम मंजिल की खोज करने जाना है
आज भी बिना पीछे मुड़े बस आगे का देखना है
रोज रहती हु खुले आसमान के निचे फिर भी नया कुछ दिखता नहीं है
चलती हु रोज लेकिन एक भी लम्हा बीतता नहीं हैं
इन भागते हुए बदलो के भीड़ में
मैं भी, उगता सूरज हूँ या डूबता, मुझे नहीं पता
सोचती बहोत हु लेकिन समझ पाती नहीं हूँ|

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