राख सी उड़ती मिट्टी जीना भूल गई
उठाना भूल गई, लड़ना भूल गई, और पिघलना भी भूल गई
कोई आस रही नहीं, कोई ख्वाहिश बची नहीं
वो धड़कते हुए दिल भी खो गए इस जहाँ में
बादल भी उड़ाते बिखरते कही और चले उसकी तलाश में
अब वो मिल गई है उस धुएं में तो रुकेगी नहीं, वो कभी वापस लौटेगी नहीं
राख सी उड़ाती मिट्टी जीना भूल गई
नदियों को बुलाना भूल गई, उन बूंदो को पिघलना भूल गई
कोई आहट, कोई फ़रियाद बची नहीं
वो गीले – शिकवे मनाते नंन्हे से बीज कही अंदर ही दबे रह गये
झुंझुला रही है मेरी आंखे उनकी तड़प से
वो भूल चुकी है सब कुछ
अब वो कभी रोयेगी नहीं, कभी हॅसेगी नहीं
राख सी उड़ती मिट्टी जीना भूल गई |